चंद्रगुप्त मौर्य
- मौर्य वंश का संस्थापक था।
- जन्म – 345 ई0पू0
- 322 ई0पू0 में मगध का राजा बना।
- चाणक्य ने घनानन्द को हराने में चंद्रगुप्त मौर्य की सहायता की।
- नन्द वंश को हराने में चंद्रगुप्त मौर्य ने कश्मीर के राजा पर्वतक की सहायता की।
- चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री बना। चाणक्य को कौटिल्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जानते हैं।
- चाणक्य ने राजनीति पर आधारित पुस्तक अर्थशास्त्र लिखी।
- 305 ई0पू0 में चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस निकेटर को हराया था। सेल्यूकस निकेटर ने अपनी पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से करा दिया और काबुल, कंधार, हेरात व मकरान चंद्रगुप्त मौर्य को दे दिए। एप्पीयानस ने चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस निकेटर के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया है। प्लुटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस निकेटर को 500 हाथी उपहार में दिए।
- सेल्यूकस निकेटर का राजदूत मेगास्थनीज चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहता था। मेगास्थनीज ने इंडिका पुस्तक लिखी।
- चंद्रगुप्त मौर्य जैनधर्म मानता था। जैनी गुरु भद्रबाहु से चंद्रगुप्त मौर्य ने दीक्षा ली थी।
- 298 ई0पू0 में चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु उपवास के कारण कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में हुई।
बिन्दुसार
- यह 298 ई0पू0 में मगध का राजा बना।
- बिन्दुसार को अमित्रघात (शत्रु विनाशक) भी कहा जाता है। वायुपुराण में बिन्दुसार को भद्रसार या वारिसार भी कहा गया है। जैन ग्रन्थों में बिन्दुसार को सिंहसेन भी कहा गया।
- बिन्दुसार आजीवक धर्म को मानता था।
- इसके काल में तक्षशीला में दो विद्रोह हुए। इन विद्रोहों को दबाने के लिए बिन्दुसार ने क्रमशः सुसीम और अशोक को भेजा।
अशोक
- अशोक 269 ई0पू0 में मगध का राजा बना।
- माता – सुभद्रांगी। पुत्र – महेंद्र। पुत्री – संघमित्रा।
- राजा बनने से पहले अशोक अवन्ती का राज्यपाल था।
- पुराणों में अशोक को अशोकवर्धन कहा गया। मास्की और गुर्जरा अभिलेख में अशोक का नाम अशोक मिलता है।
- अशोक ने 261 ई0पू0 में कलिंग पर आक्रमण किया और कलिंग की राजधानी तोसली पर कब्जा कर लिया।
- पिल्नी के अनुसार – मिस्र के राजा फिलाडेल्फस (टोलमी II) ने अशोक के दरबार में डियानीसियस नामक राजदूत भेजा।
- बौद्ध भिक्षुक उपगुप्त ने अशोक को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी।
- अशोक ने आजीवकों के रहने के लिए बराबर की पहाड़ियों में कर्ज, सुदामा, चोपार और विश्व झोपड़ी नामक चार गुफाएँ बनवाई। अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुन नामक गुफा आजीवकों को दी।
- अशोक ने पुत्र – महेंद्र और पुत्री – संघमित्रा को श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा।
अशोक के अभिलेख
- अभिलेख का प्रचलन भारत में अशोक ने ही किया। अशोक को अभिलेख जारी की प्रेरणा हखामनी शासक डेरियस (दार I) से मिली। अशोक के अभिलेखों में ब्राह्मी, खरोष्ठी, ग्रीक और अमराइक लिपि का प्रयोग हुआ है। अशोक के लेखों की भाषा प्राकृत (अर्धमागधी या जनपदीय), ग्रीक और अमराइक है। खरोष्ठी, ग्रीक और अमराइक लिपि का प्रयोग कुछ दीर्घ और कुछ लघु शिलालेखों में मिलता है। सभी स्तम्भ लेखों और गुहा लेखों में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग हुआ है। शाहबाजगढ़ी और मनसेहरा दीर्घ शिलालेखों में खरोष्ठी लिपि है। लघमान से प्राप्त दो लघु शिलालेखों और तक्षशीला से प्राप्त एक लघु शिलालेख में अमराइक लिपि है। अफगानिस्तान से ग्रीक और अमराइक लिपि में, उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में खरोष्ठी लिपि में और शेष भारत में ब्राह्मी लिपि में अशोक के अभिलेख मिले है। अशोक के अभिलेखों की खोज पाद्रेटी फेंथैलर द्वारा 1750 ई0 में दिल्ली मेरठ स्तंभ लेख के रूप में की गई। अशोक के अभिलेख सबसे पहले जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई0 में दिल्ली टोपरा स्तंभ लेख के रूम में पढे, लेकिन उसने ‘देवानांप्रिय’ ‘पियदस्सी’ की पहचान श्रीलंका के शासक ‘तिस्स’ से कर डाली। सिंहली बौद्ध साहित्य दीपवंश के आधार पर जार्ज टर्नर ने ‘पियदस्सी’ की पहचान मौर्य सम्राट अशोक से की। 1915 ई0 में बिडल महोदय द्वारा मास्की अभिलेख खोजा गया, जिसमें अशोक नाम मिलता है। डॉ भंडारकर ने अशोक का इतिहास केवल अशोक के अभिलखों के आधार पर लिखा है। खरोष्ठी लिपि का उद्गम अमराईक (ईरान) से हुआ है। ब्राह्मी बाएँ से दाएँ लिखी जाती है और खरोष्ठी लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती है। अशोक के अभिलेखों को शिलालेख, स्तंभलेख, गुहालेख में बाँटा जाता है।
अशोक के शिलालेख
- अशोक के शिलालेखों में 14 दीर्घ, 13 लघु और दो प्रथक शिलालेख हैं।
- अशोक के चौदह दीर्घ शिलालेखों के विषय निम्न प्रकार से हैं-
- पहला – पशुबलि की निंदा। दो मोर और एक हिरण को छोड़कर अहिंसा का वर्णन।
- दूसरा – मनुष्य और पशु की चिकित्सा, कुएँ खुदवाना, वृक्ष लगवाना, औषधी पादप का उल्लेख। सीमावर्ती राज्यों चोल, पाण्डेय, सत्तीयपुत्त, केरलपुत्र का उल्लेख। सीरिया के राजा एनतियोगास और श्रीलंका का उल्लेख।
- तीसरा – युक्त, राजुक, प्रादेशिक अधिकारियों को हर पाँचवे वर्ष दौरे पर जाने का निर्देश और कुछ धार्मिक नियमों का उल्लेख। माता-पिता की सेवा का उल्लेख। ब्राह्मणों और श्रमणों को सम्मान का उल्लेख। थोड़ा खर्च व थोड़ा बचत का उल्लेख।
- चौथा – भेरोघोष की जगह धम्मघोष की घोषणा।
- पाँचवाँ – अशोक के राज्याभिषेक के 13वें वर्ष में धर्म-महामात्रों की नियुक्ति की जानकारी।
- छ्ठा – प्रतिवेदकों की नियुक्ति। आत्म-नियंत्रण की शिक्षा। जगत कल्याण से बढ़कर कोई कार्य नहीं है।
- सातवाँ – धम्म के स्वरूप की चर्चा। अशोक की तीर्थ-यात्रा का उल्लेख। विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता।
- आठवाँ – विहार यात्रा के स्थान पर धम्म यात्रा का उल्लेख।
- नौवाँ – धम्म मंगलों का उल्लेख। सच्ची भेंट और सच्चे शिष्टाचार का उल्लेख।
- दसवाँ – धम्म की श्रेष्ठता पर बल। राजा और प्रजा को सदैव प्रजा हित के लिए सोचने का निर्देश।
- ग्यारहवाँ – धम्म की व्याख्या। नैतिक आचरण पर बल।
- बारहवाँ – विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता। स्त्री महामात्रों, ब्रजभूमिक की नियुक्ति और सभी के विचारों का सम्मान का उल्लेख।
- तेरहवाँ – कलिंग युद्ध, अशोक के हृदय परिवर्तन। कलिंग युद्ध में एक लाख लोग मारे गए और डेढ़ लाख को बंदी बनाया गया। 600 कोटि योजन या 1400 मील तक धम्म विजय की चर्चा। पड़ोसी राज्यों चोल, पाण्डेय पर धम्म विजय का उल्लेख। विदेशी राज्यों का उल्लेख। अवटिक जतियों या जंगली जतियों को दंडित करने का फरमान। अशोक का सबसे बड़ा शिलालेख। धम्म के अनुसार आचरण पर विस्तार से बल।
- चौदहवाँ – अभिलेखों में लिपिकारों द्वारा की गई गलती और सम्पूर्ण जनता तक सूचना न पहुँचा पाने का उल्लेख। जनता को धार्मिक जीवन बिताने की प्रेरणा।
- अशोक ने बृहत् शिलालेख आठ अलग-अलग स्थानों पर लिखवाए-
- शाहबाजगढ़ी – पाकिस्तान के पेशावर जिले के युजुफ़्जई तहसील में। 1836 ई0 में जनरल कोर्ट ने खोजा। भाषा प्राकृत। लिपि खरोष्ठी।
- मनसेहरा – पाकिस्तान के हजारा जिले में। 1889 ई0 में कनिघम ने खोजा।
- कालसी – उत्तराखंड के देहरादून जिले में। 1860 में फॉरेस्ट ने खोजा। यमुना और टाँस नदी के संगम पर।
- गिरनार – गुजरात के कठियावाड़ में जूनागढ़ के पास। 1822 ई0 में कर्नल टाड ने खोजा। सबसे सुरक्षित वृहत शिलालेख। दाएँ और बाएँ दो भोगों में विभक्त। भाषा प्राकृत। लिपि खरोष्ठी।
- धौली – पुरी, उड़ीसा में। 1837 ई0 में किट्टो ने खोजा।
- जोगढ़ – गंजाम, उड़ीसा में। 1850 में वाल्टर इलियट ने खोजा।
- एर्रगुड़ी – कर्नूल, आंध्रप्रदेश में। 1929 में अनुघोष ने खोजा। लिपि दाएँ से बाएँ।
- सोपारा – महाराष्ट्र के थाना जिले में। 1882 ई0 में भगवान लाल ने खोजा।
- नवीनतम दो स्थानों में हैं –
- कंधार – अफगानिस्तान में। 1964 ई0 में डॉ श्लुमबर्गर ने खोजा। इसमें 12वें वृहत शिलालेख का अंतिम और 13वें वृहत शिलालेख का प्रारम्भिक भाग मिलता है।
- सन्नति – कर्नाटक में। चन्द्रलांबा मंदिर के ग्रेनाईट पर दो पृथक कलिंग अभिलेख के कुछ अंश मिलते है। यह अशोक को नवीनतम खोजा गया वृहत शिलालेख है। खोज – 1989 ई0।
- पृथक कलिंग शिलालेख – अशोक के धौली और जौगढ़ के वृहत शिलालेखों में 11वें, 12वें, 13वें लेख नहीं मिलते हैं। इनके स्थान पर दो पृथक प्रस्तर शिलालेख या दो पृथक कलिंग शिलालेख मिलते हैं।
- प्रथम पृथक कलिंग शिलालेख – अशोक ने घोषणा की कि समस्त प्रजा मेरी संतान है। बिना कारण किसी व्यक्ति को परेशान न करें। धम्म महामात्र प्रति 5वें वर्ष दौरे पर जाएँ और तक्षशीला व उज्जैन प्रति तीसरे वर्ष दौरे पर जाएँ।
- द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख – अशोक ने घोषणा की कि समस्त प्रजा मेरी संतान है। सीमांत क्षेत्रों में धम्म का प्रचार और जनता का विश्वास जीतने का निर्देश।
- अशोक के लघु शिलालेख भी हैं। ये चौदह वृहद शिलालेखों में शामिल नहीं हैं इसलिए इन्हें लघु शिलालेख कहा गया। इनको संख्या 1 और संख्या 2 में बांटा गया। लेकिन बेराठ से प्राप्त लघु शिलालेख को संख्या 3 नाम दिया गया। लघु शिलालेख मास्की, गुर्जरा, नेत्तूर, उद्देगोलक में ही अशोक का नाम अशोक मिलता है। लघु शिलालेख संख्या 1 में अशोक के व्यक्तिगत जीवन की जानकारी मिलती है। लघु शिलालेख संख्या 2 में धम्म की जानकारी मिलती है।
- मास्की (रायचूर, कर्नाटक) – अशोक का वास्तविक नाम मिलता है।
- नेत्तूर (कर्नाटक) – अशोक का वास्तविक नाम मिलता है।
- उड़ेगोलम (कर्नाटक) – अशोक का वास्तविक नाम मिलता है।
- गुर्जरा (दतिया, मध्यप्रदेश) – अशोक का वास्तविक नाम मिलता है।
- भाब्रू (बैराठ, जयपुर, राजस्थान) – इसमें अशोक ने स्वयं को मगधाधिराज कहा है। भाब्रू के दो शिलालेख जयपुर के बैराठ में बीजक की पहाड़ियों से 1837 ई0 में कैप्टन बर्ट ने खोजा। यह अशोक को बौद्ध प्रमाणित करने वाला सबसे बड़ा अभिलेखीय साक्ष्य है। इसमें अशोक बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध, धम्म और संघ में आस्था प्रकट करता है। वर्तमान में यह कलकता संग्रहालय में है।
- अहरोरा (उत्तर-प्रदेश) – इसमें अशोक 256 रातें स्तूप निर्माण हेतु भ्रमण में बिताने का उल्लेख करता है।
- पनगुडरिया (मध्य प्रदेश) – इसमें अशोक को महाराज कुमार कहा गया है।
- रूपनाथ (जबलपुर, मध्यप्रदेश)
- सहस्रार (सहसाराम, बिहार)
- ब्रहमगिरी (चीतलदुर्ग, कर्नाटक),
- सिद्धपुर (चीतलदुर्ग, कर्नाटक),
- जंतिगरामेश्वर (कर्नाटक)
- गोविमठ (कर्नाटक)
- पालकीगुंडु (कर्नाटक)
- राजुल मद्दागिरी (आंध्रप्रदेश)
- सोरोमारो (मध्यप्रदेश)
- एर्रगुड़ी (आंध्रप्रदेश)
- शर-ए-कुना (कंधार, अफगानिस्तान) – ग्रीक और अमराईक लिपि।
- लघमान (अफगानिस्तान)
- पुल-ए-दुरुन्त (कंधार, अफगानिस्तान) – प्राकृत और अमराईक लिपि।
अशोक के स्तंभ लेख
- अशोक के स्तम्भ लेख – ये मौर्य कला के सर्वोत्कृट नमूने हैं। ये एकाश्म पत्थर से बने हैं। इन्हें पृथ्वी और स्वर्ग के बीच विभाजिय धुर्वीय रेखा के रूप में देखा गया है। इनकी संख्या लगभग 30 है। चीनी यात्री फाहियान ने 6 और हेनसांग ने 15 स्तम्भ लेखों का उल्लेख किया है। अशोक ने चुनार के बलुआ पत्थर से इनका निर्माण कराया। रोमिला थापर ने इनको मथुरा के छींट के पत्थर से बना बताया। चमकदार पालिश होने के कारण टॉम कोयार्ट ने इनको पीतल मंडित बताया। इन स्तंभो को मुख्यतः लाट/यष्टि, अवांगमुखी कमल/उल्टा कमल, चौकी, शीर्ष में बाँटा गया है। अशोक के स्तम्भ दो भागों से मिलकर बने है। लाट/यष्टि – यह गोल या सुंडाकार थी, इसका ऊँचाई 30-50 फुट, वजन 50 टन तक होता था। शीर्ष भाग – स्तम्भ का सबसे अलंकृत भाग। यष्टि भाग के साथ ताँबे के अकुड़े से जोड़ा जाता। शीर्ष भाग में ऊपर से नीचे का क्रम था – स्वतंत्र पशु आकृति, विभिन्न पशुओं की आकृतियाँ, मोटी डोरी या कंठा, उल्टा कमल, मेखला।
- अशोक से स्तम्भ दो प्रकार के हैं – लेखयुक्त और लेखविहीन स्तम्भ। लेखयुक्त स्तम्भ भी दो प्रकार के है- लघु और वृहत।
- अशोक के सात वृहत स्तंभ लेख हैं। जो निम्न छह स्थानों से मिले है। ये सभी ब्राह्मी लिपि में हैं।
- दिल्ली मेरठ स्तंभ लेख – इसे फिरोज़शाह तुगतक के द्वारा मेरठ से दिल्ली लाया गया। इसे फिरोज़शाह कोटला के कुश्क- ए-शिकार में स्थापित किया गया। इसे अशोक की छोटी लाट भी कहते हैं। केवल छह राजाज्ञाएँ हैं।
- दिल्ली टोपरा स्तंभ लेख – शीर्ष विहीन। इसे फिरोज़शाह तुगतक के द्वारा 42 पहियों की गाड़ी पर टोपरा (हरियाणा) से दिल्ली लाया गया। इसे फिरोज़शाह कोटला के सुल्तान के महल में स्थापित किया गया। इसका वर्णन ‘शम्स ए सिराज आफिफ’ ने ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में किया है। इसे मीनार-ए-जरीन, स्वर्ण मीनार, स्वर्ण स्तंभ और अशोक की बड़ी लाट भी कहते हैं। इसी स्तंभ लेख पर अशोक की सातों राजाज्ञाएँ हैं।
- प्रयाग-कौशांबी स्तंभ लेख – पहले कौशांबी में था। इसे रानी का अभिलेख भी कहा जाता है। इसे अकबर ने इलाहबाद के किले में स्थापित कराया। इस पर समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति और जहाँगीर द्वारा उत्कीर्ण मुगल राजाओं की वंशावली है। केवल छह राजाज्ञाएँ हैं।
- लौरिया नन्दनगढ़ स्तंभ लेख – यह चंपारण, बिहार में है। इस पर मोर का चित्र है। यह सबसे सुंदर और सुरक्षित है। इस पर औरंगजेब का लेख भी है। केवल छह राजाज्ञाएँ हैं।
- लौरिया अरेराज स्तंभ लेख – यह चंपारण, बिहार में है। केवल छह राजाज्ञाएँ हैं।
- लौरिया रामपुरवा स्तंभ लेख – यह चंपारण, बिहार में है। इसे 1872 ई0 में कारलायल ने खोजा था। केवल छह राजाज्ञाएँ हैं। यहाँ दो स्तंभ मिले हैं लेकिन एक लेख विहीन है। लेखयुक्त स्तंभ पर सिंह और लेखविहीन स्तंभ पर वृषभ की आकृति उत्कीर्ण है।
- अशोक के कुछ लघु स्तंभ लेख हैं। जिनमें प्रमुख हैं-
- साँची
- सारनाथ
- कौशांबी – इसे रानी का अभिलेख भी कहते हैं।
- रुम्मीदेई लघु स्तंभ लेख – नेपाल के तराई में है। यह अशोक का सबसे छोटा स्तंभ लेख है। अशोक के केवल इसी स्तंभ लेख में मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था का उल्लेख है। इसमें भूराजस्व की दर घटाने की घोषणा है। बुद्ध के जन्म के बारे में एकमात्र अभिलेखीय प्रमाण है। इसमें बुद्ध को शाक्यमुनि कहा है।
- निगाली सागर – नेपाल के तराई में है।
- अशोक के लेख विहीन स्तम्भ –
- रामपुरवा वृहत स्तंभ (वृषभ)
- वैशाली (बसाढ़) स्तंभ
- संकीसा स्तंभ – शीर्ष पर हाथी।
- कोसम (कौशांबी) स्तंभ
अशोके के गुहा अभिलेख
- अशोक के गुहा अभिलेख – इनकी लिपि ब्राह्मी है और भाषा प्राकृत है। ये निम्न जगह मिलते हैं –
- बराबर की पहाड़ी के गुहालेख – ये पहले बिहार के गया जिले में थे अब जहानाबाद जिले में हैं। अशोक ने काले ग्रेनाइट से बनवाया। आजीवक मुनियों को दान किया।
- सुदामा गुफा – अशोक ने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष गुहालेख लिखवाया। इसे निग्रोध या बनियान गुफा के नाम से भी जानते है।
- विश्व झोपड़ी गुफा – अशोक ने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष गुहालेख लिखवाया। इसे विश्वकर्मा गुफा के नाम से भी जानते है। यहाँ से प्राप्त लेख से पता चलता है कि इस पहाड़ी के नाम पहले खलतीक था।
- कर्ण चोपड़ गुफा – अशोक ने राज्याभिषेक के 19वें वर्ष गुहालेख लिखवाया। इसे सुपिया गुफा के नाम से भी जानते है। इसमें आयताकार कक्षों का निर्माण है।
- लोमष ऋषि गुफा – इसमे अशोक के लेख नहीं है। यह निर्माण और पालिश की दृष्टि से मौर्यकालीन लगती है। इसके समय खटलीक पर्वत का नाम पर्वर पर्वत हो गया। इसमें मौखिरी राजा अनंतवर्मा के लेख मिलते है। तोरणद्वार पर हाथियों को दिखाया गया है। यह बराबर पहाड़ी की सबसे सुंदर गुफा है।
- नागार्जुनी की पहाड़ी के गुहालेख – ये बिहार के जहानाबाद जिले में हैं। ये अशोक के पौत्र दशरथ ने बनवाई और अजीवकों को दान दे दी।
-
-
- गोपी गुफा
- वापी गुफा
- पदथिक या बड़थिक गुफा
-
- पानगोरारिया नैसर्गिक गुहालेख – ये मध्यप्रदेश के सेहोर जिले में हैं। इनकी खोज के0डी0 बनर्जी और भोपर्दिकर ने की
- राजगृह के निकट सीतामढ़ी गुहालेख
मौर्यकालीन प्रशासन व्यवस्था
मौर्यकालीन प्रशासन की जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज के इंडिका, अशोक के अभिलेखों और जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है। मौर्यकालीन प्रशासन केंद्रीय राजतंत्रात्मक था। भारतीय इतिहास की सबसे विस्तृत नौकरशाही मौर्यकालीन प्रशासन में थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन है जिसका क्रम निम्न प्रकार है – स्वामी (राजा), आमात्य, जनपद, दुर्ग, दंड, कोष, मित्र।
मौर्यकालीन प्रशासन व्यवस्था को निम्न स्तरों पर विभक्त किया जाता है-
(क) केंद्रीय प्रशासन – केंद्रीय प्रशासन के भाग
- राजा – राजा प्रमुख होता था। वह वंशानुगत था। नगरप्रशासन, राजस्व प्रशासन, न्याय प्रशासन, दंड प्रशासन में अंतिम निर्णय राजा का होता था।
- मंत्रिपरिषद – मंत्रिपरिषद के सदस्य राजा नियुक्त करता था जो उच्च कुल, वीर, बुद्धिमान, ईमानदार और स्वामिभक्त हों। इसमें 12 से 20 तक मंत्री हो सकते थे। इनका वेतन 12 हजार पण प्रति वर्ष होता था। मंत्रिपरिषद की बैठक वाले भवन को मंत्र-भूमि कहते थे। ‘उपधा परीक्षण’ के द्वारा मुख्यमंत्री और पुरोहित की नियुक्ति होती थी।
- मंत्रिण – राजा को तुरंत निर्णय लेने में परामर्श देने हेतु 3-4 मंत्रियों की एक उप-समिति होती थी। इसे मंत्रिगण कहा जाता।
- विभागीय व्यवस्था – मौर्यकाल में प्रशासन की सुविधा के लिए 18 विभागों की स्थापना की गई थी जिन्हें तीर्थ कहते थे। प्रत्येक तीर्थ के संचालन और निरीक्षण के लिए एक अध्यक्ष होता था जिसे आमात्य कहते थे। आमात्य अपने विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था। प्रत्येक विभाग के अनेक उप-विभाग होते थे, जिनके अध्यक्ष आमात्य के अधीन कार्य करते थे। अर्थशास्त्र में वर्णित तीर्थ है-
-
- मंत्री – प्रधानमंत्री
- पुरोहित – घर्म और दान विभाग
- सेनापति – सैन्य विभाग
- युवराज – राजपुत्र
- दौवारिक – राजकीय द्वार रक्षक
- अंतर्वेदिक – अंतःपुर का अध्यक्ष
- समाहर्ता – आय का संग्रहकर्ता
- सन्निधाता – राजकीय कोष
- प्रशास्ता – कारगार का अध्यक्ष
- प्रदेष्ट्ररी – कमिश्नर
- पौर – नगर का कोतवाल
- व्यावहारिक – प्रमुख न्यायधीश
- नायक – नगर रक्षा का अध्यक्ष
- कर्मांतिक – उद्योगों और कारखानों का अध्यक्ष
- मंत्रिपरिषद – अध्यक्ष
- दंडपाल – सेना का सामान एकत्र करने वाला
- दुर्गपाल – दुर्ग-रक्षक
- अंतपाल – सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक
-
तीर्थ निम्न अध्यक्षों की सहायता से कार्य संभालते थे –
- लक्षणाध्यक्ष – टकसाल का अधिकारी
- पण्याध्यक्ष – व्यापार वाणिज्य का अधिकारी
- कुप्याध्यक्ष – जंगल का अधिकारी
- पौत्वाध्यक्ष – माप-तौल का अधिकारी
- शुल्काध्यक्ष – चुंगी का अधिकारी
- सूत्राध्यक्ष – सिलाई, बुनाई, वस्त्र उत्पादन अधिकारी
- आयुधागारध्यक्ष – शस्त्रागार का अधिकारी
- सीताध्यक्ष – कृषि विभाग का अधिकारी
- सुराध्यक्ष – आबकारी विभाग का अधिकारी
- सूनाध्यक्ष – बूचड़खाने का अधिकारी
- आकराध्यक्ष – खदानों का अधिकारी
- विविताध्यक्ष – चारागाह का अधिकारी
- नवाध्यक्ष – नौ-सेना का अधिकारी
- गणिकाध्यक्ष – वेश्याओं का अधिकारी
- संस्थाध्यक्ष – व्यापारिक मार्गों का अधिकारी
- लवणाध्यक्ष – नमक का अधिकारी
- मुद्राध्यक्ष – पासपोर्ट अधिकारी
- कोष्ठगाराध्यक्ष – भंडारगृह का अधिकारी
- स्वर्णाध्यक्ष – स्वर्ण उपत्पादों का अधिकारी
- हस्ती-अध्यक्ष – हाथियों के विभाग का अधिकारी
- बंधनगाराध्यक्ष – जेल अधिकारी
- देवताध्यक्ष – धार्मिक संस्थानों का अधिकारी
- लोहाध्यक्ष – धातुओं का अधिकारी
- पतनाध्यक्ष – बन्दरगाह का अधिकारी
- द्यूयाध्यक्ष – जुए का अधिकारी
- मानाध्यक्ष – दूरी और समय संकेतक अधिकारी
(ख) प्रांतीय प्रशासन – छ: प्रांत थे। इन्हें चक्र कहते थे। चक्रों पर शासन करने के लिए ‘कुमार’ की नियुक्ति की जाती थी। इनको आर्यपुत्र या राष्ट्रिक भी कहते थे। ये महामात्यों की सहायता से चक्र पर शासन करते थे। मौर्यकालीन चक्र थे –
- गृह राज्य /प्राशी – राजधानी पाटलीपुत्र
- उत्तरापथ – राजधानी तक्षशीला
- अवन्ती – राजधानी उज्जैन
- कलिंग – राजधानी तोशाली
- दक्षिणापंथ – राजधानी सुवर्णगिरि
प्रत्येक प्रांत के अधीन निम्न संस्थाएँ होती थीं –
- मण्डल – प्रत्येक प्रांत में अनेक मण्डल होते थे जिसका प्रमुख महामात्य होता था।
- आहार/जिला/विषय/जनपद – प्रत्येक मण्डल में अनेक जनपद होते थे जिसका प्रमुख समाहर्ता होता था।
- स्थानीय – 800 गाँव का समूह।
- द्रोणमुख – 400 गाँव का समूह।
- खार्वटिक – 200 गाँव का समूह।
- संग्रहण – दस गाँव का समूह।
- नगर – प्रत्येक जनपद अनेक नगर होते थे जिसका प्रमुख नागरिक होता था। इसके अधीन स्थानिक और गोप अधिकारी होते थे। गोप सबसे छोटा प्रशासक होता था जो दस ग्रामों का शासन संभालता था। नगर प्रशासन के लिए 30 सदस्यों की एक नगर सभा होती थी, जो पाँच-पाँच सदस्यों के रूप में 6 समितियों में विभक्त थी। ये समितियाँ निम्न कार्य देखती थी-
-
- प्रथम समिति – उद्योग एवं शिल्प कार्य का निरीक्षण
- द्वितीय समिति – विदेशियों की देखरेख
- तृतीय समिति – जन्म-मरण का विवरण
- चतुर्थ समिति – व्यापार और वाणिज्य की देखरेख
- पंचम समिति – निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण
- षष्ठ समिति – बिक्री कर वसूल करना
-
- ग्राम – प्रत्येक नगर की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी। इसका प्रमुख ग्रामिक कहलाता थे। ग्रामिक ग्राम सभा का प्रधान होता था। उसका निर्वाचन ग्रामवासी करते थे। , 10 ग्रामों के समूह को संग्रहण, 200 ग्रामों के समूह को खार्वटिक, 400 ग्रामों के समूह को द्रोणमुख, 800 ग्रामों के समूह को स्थानीय कहते थे।
ग) न्याय प्रशासन – सबसे ऊपर राजा का न्यायलय होता था। सबसे छोटा ग्रामिक का न्यायालय होता था। दंड व्यवस्था कठोर थी। राजा और ग्राम न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायालय दो प्रकार के होते थे –
- धर्मस्थीय न्यायालय – ये दीवानी मुकदमे देखते थे। इसमें धर्मशास्त्र का पूर्ण ज्ञान रखने वाले तीन धर्मस्थ/व्यावहारिक और तीन आमात्य होते थे।
- कंटकशोधन न्यायालय – ये फ़ौजदारी मुकदमे देखते थे। इसके अध्यक्ष प्रदेष्टा कहलाते थे जिनकी संख्या तीन होती थी।
(घ) राजस्व प्रशासन – राजस्व विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी समाहर्ता था। आय का प्रमुख स्रोत भूमि कर था। राज्य की अपनी भूमि से होने वाली आय को ‘सीता’ और राज्य के अधिकार से बाहर की भूमि से होने वाली आय को ‘भाग’ कहते थे। बिना वर्षा अच्छी खेती वाली भूमि को आदेवमातृक कहा जाता था। आयात कर को ‘प्रवेश्य’ और निर्यात कर को ‘निष्क्राम्य’ कहते थे। बिक्रीकर के रूप में मूल्य का 10वाँ भाग लिया जाता था। गबन करने वाले को प्राणदंड का विधान था। मेगास्थनीज के अनुसार मार्ग निर्माण कराने वाले अधिकारी को एग्रोनोमाई और नगर अधिकारी को एक्टोनोमई कहते थे।
(ड) गुप्तचर व्यवस्था – रक्षा करने वाले को रक्षित कहा जाता था। गुप्तचर को ‘चर’ या ‘गूढ़ पुरुष’ कहते थे। एक ही स्थान पर रहकर कार्य करने वाले गुप्तचर को संस्था कहा जाता था। एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने वाले गुप्तचर को संचार कहा जाता। यूनानी लेखकों ने उनको ओवरसियर और इंस्पेक्टर कहा है। स्त्री-पुरुष दोनों गुप्तचर होते थे। गुप्तचर के भी गुप्तचर होते थे। गुप्तचर व्यवस्था दोहरी थी।
(च) सैन्य प्रशासन – सेना का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था। सैन्य विभाग पाँच-पाँच सदस्यों के छह समितियों में विभक्त था। जो थी – पैदल सेना, नौसेना, अश्व सेना, रथ सेना, गज सेना, सैनिक सेवा। पाँच दुर्ग होते थे – स्थल दुर्ग, जल दुर्ग, वन दुर्ग, गिरि दुर्ग, मरु दुर्ग। जस्टिन के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में लगभग 50000 अश्वारोही, 9000 हाथी और 8000 रथ थे। युद्ध क्षेत्र में सेना का नेतृत्व करने वाला अधिकारी ‘नायक’ कहलाता था।
(छ) लोकहित के कार्य – देश कृषि प्रधान था। कृषि के लिए सिचाई की उचित व्यवस्था थी। जगह-जगह धर्मशालाएँ, पेड़, प्याऊ, चिकित्सा आदि की व्यवस्था की जाती थी। महामारी, बाढ़, आपदा से बचने के लिए राहत दी जाती थी।
(ज) अशोक द्वारा किए गए सुधार –
- मंत्रियों को निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र कर दिया।
- धम्म-महामात्रों को नियुक्त किया।
- न्याय संबंधी अधिकारी राजुक को दे दिए।
- जनता की समस्या जानने के लिए व्युष्ट नामक अधिकारी नियुक्त किए।
- मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं के लिए भी चिकित्सा की व्यवस्था की।
- पशु-पक्षियों के वध को रोक दिया।
- वर्ष में एक बार कैदियों को मुक्त करने की प्रथा का आरंभ किया।
- दंड व्यवस्था को सरल किया।
मौर्य कालीन समाज
- मेगास्थनीज के अनुसार समाज सात वर्गों में विभाजित था – दार्शनिक, किसान, अहीर, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक, सभासद।
- स्वतंत्र वेश्यावृति अपनाने वाली स्त्री रूपाजीवा कहलाती थी।
मौर्य वंश का अंतिम शासक
- मौर्य शासन 137 वर्षों तक रहा। बृहद्रथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था। बृहद्रथ की हत्या इसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई0पू0 में करके मगध पर शुंग वंश की स्थापना की।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
- हेमचन्द्र राय चौधरी – अशोक की अहिंसा की नीति
- डीडी कौशांबी – आर्थिक संकट
- हारप्रसाद शास्त्री – ब्राह्मण विरोधी नीति
- डीएन झा – कमजोर उत्तराधिकारी
- रोमिला थापर – अप्रशिक्षित नौकरशाही
- निहाररंजन रे – जनता का विद्रोह
- राधाकुमुद मुखर्जी – उत्तराधिकारी नियमों के कारण